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कविता

खड़ी हुई है धूप लजाई

प्रदीप शुक्ल


खड़ी हुई है धूप लजाई
घर के आँगन में
आलस बिखरा
हर कोने में
दुबकी पड़ी रजाई
भोर अभी कुहरे की चादर
में बैठी शरमाई
एक अबोला
पसरा है
घर के हर बासन में

अनबुहरा घर
देख रहा है
अम्मा का बिस्तर
पड़ी हुई हैं अम्मा, उनको
तीन दिनों से ज्वर
चूल्हा सोया
पड़ा हुआ
ढीले अनुशासन में

उतरी है गौरैय्या
आकर
चूँ चूँ चूँ बोली
आहट सुन कर सोए कुत्ते
ने आँखें खोली
दबे पाँव सन्नाटा भागा
आनन फानन में
खड़ी हुई है धूप लजाई
घर के आँगन में।


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